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  1. IPO से कैसे अलग है DPO? क्या होते हैं दोनों के फायदे और नुकसान?

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IPO से कैसे अलग है DPO? क्या होते हैं दोनों के फायदे और नुकसान?

Upstox

7 min read | अपडेटेड November 25, 2024, 18:29 IST

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सारांश

जब कंपनी यह फैसला ले लेती है कि उसे फंड जुटाने के लिए अपने शेयर्स बेचने होंगे, तो इसके दो मुख्य तरीके होते हैं- IPO और DPO। इन दोनों तरीकों का मकसद एक ही है, यानी की दोनों का इस्तेमाल एडिशनल कैपिटल जुगाड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन दोनों तरीकों में कई मायनों में अंतर भी हैं।

IPO और DPO के हैं अपने फायदे और नुकसान

IPO और DPO के हैं अपने फायदे और नुकसान

कंपनी जब ग्रो कर रही होती है, तो कई बार इसे अपनी ग्रोथ के लिए फंड्स इकट्ठा करने की जरूरत होती है। जब किसी कंपनी को एडिशनल कैपिटल चाहिए होती है, तो फंड रेज करने के दो तरीके होते हैं, पहला डेट (Debt) और दूसरा इक्विटी लेकिन जब कंपनी फंड जुटाने के लिए ज्यादा डेट का इस्तेमाल कर चुकी होती है, तो उसके पास एक ही तरीका बचता है और वह होता है अपनी कंपनी के शेयर्स को बेचना।

जब कंपनी यह फैसला ले लेती है कि उसे फंड जुटाने के लिए अपने शेयर्स बेचने होंगे, तो इसके दो मुख्य तरीके होते हैं, पहला डीपीओ यानी कि डायरेक्ट पब्लिक ऑफरिंग और दूसरा आईपीओ यानी कि इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग। इन दोनों तरीकों का मकसद एक ही है, यानी की दोनों का इस्तेमाल एडिशनल कैपिटल जुगाड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन दोनों तरीकों में कई मायनों में अंतर भी हैं।

डीपीओ का मतलब क्या है?

डीपीओ का पूरा नाम डायरेक्ट पब्लिक ऑफरिंग है। इसमें कंपनी बिना कोई नए शेयर बनाए ही कैपिटल रेज़ करने के लिए मौजूदा शेयर्स को बेचती है। यहां कंपनियां बिचौलियों के बिना अपने शेयर सीधे लोगों को बेचती हैं।

बिचौलियों से यहां मतलब है इन्वेस्टमेंट बैंक, अंडरराइटर और ब्रोकर-डीलर। इसको डायरेक्ट प्लेसमेंट के नाम से भी जाना जाता है। डीपीओ को आमतौर पर छोटी कंपनियों के बीच पसंद किया जाता है, क्योंकि इसका फोकस होता है कि कैपिटल रेज़ कॉस्ट कटिंग के साथ किया जाए।

डीपीओ काम कैसे करता है?

इसको समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि अगर किसी कंपनी को फंड रेज़ करना है, लेकिन वह इन्वेस्टमेंट बैकों और अंडरराइटर्स जैसे बिचौलियों को पैसा नहीं देना चाहती है या उसके पास उन्हें देने के लिए उतना पैसा नहीं है, तो वह इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग की जगह डायरेक्ट पब्लिक ऑफरिंग को चुनती है।

डायरेक्ट पब्लिक ऑफरिंग नाम से ही पता चलता है कि यहां कंपनी अपने शेयर सीधे पब्लिक तक पहुंचाती और बेचती है। कंपनी को यह फ्रीडम होती है कि वह अपने फाइनेंशियल गोल्स के हिसाब से शेयर्स की कीमत तय करे उसे पब्लिक तक पहुंचाए।

शेयर की कीमत के साथ-साथ कंपनी यह तय कर सकती है वह इन्वेस्टर्स को कितने मैक्सिमम शेयर्स बेचेगी और साथ ही टाइमलाइन का फैसला लेने के लिए कंपनी स्वतंत्र होती है।

डीपीओ के फायदे और नुकसान

पहले नजर डालते हैं डीपीओ से कैपिटल रेज करने के फायदे-

शेयरहोल्डर्स को लिक्विडिटी मिलती है कि वह शेयर मार्केट में फुल फ्रीडम के साथ शेयर बेच सकते हैं।

कोई बिचौलिया शामिल नहीं होने से लागत कम हो जाती है।

डीपीओ के जरिए कैपिटल रेज़ करने के प्रोसेस में कम समय लगता है।

कंपनियों को कॉन्फिडेंशियल जानकारी का खुलासा करने की जरूरत नहीं पड़ती है।

डीपीओ के जरिए फंड रेज करने के नुकसान

कंपनियां केवल 12 महीनों के अंदर लिमिटेड फंड जुटा सकती हैं।

आईपीओ से तुलना करें तो यह थोड़ा ज्यादा अस्थिर तरीका है।

इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग कैसे काम करती है?

इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग से मतलब है कि किसी प्राइवेट कंपनी के शेयरों को पहली बार लोगों को बेचकर कैपिटल रेज़ करना। यह कहा जा सकता है कि एक कंपनी प्राइवेट से पब्लिक कंपनी बनने की ओर बढ़ रही है। इसीलिए हम इसे पब्लिक होना कहते हैं।

बूटस्ट्रैप्ड कंपनियां या स्टार्टअप जो सालों से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, आईपीओ के जरिए लोगों को शेयर बेचने का ऑप्शन चुनते हैं। अब इसके कई सारे कारण हो सकते हैं, कर्ज चुकाना, बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए फंड की जरूर और लिक्विडिटी पैदा करना, पब्लिक होने के कुछ मुख्य कारण हो सकते हैं।

आईपीओ डायरेक्ट लिस्टिंग से इस मायने में अलग है कि आईपीओ में बिचौलियों को शामिल किया जाता है। पब्लिक को सिक्योरिटीज़ रजिस्टर करने और डिस्ट्रीब्यूट करने में मदद के लिए अंडरराइटर जैसे बिचौलियों को काम पर रखा जाता है। इसके अलावा, अंडरराइटर इन्वेस्टर्स को सिक्योरिटीज़ बेचने के लिए ब्रोकर्स और इन्वेस्टमेंट बैंक्स की मदद ले सकता है।

आईपीओ के फायदे कंपनी को बढ़ाने, रिसर्च और ग्रोथ के लिए जो फंड्स चाहिए, उसे जुटाने के लिए यह ट्रेडिशनल और आसान प्रोसेस है।

आईपीओ लाने से कंपनी का प्रचार भी हो जाता है और इसके साथ-साथ कंपनी की विश्वसनीयता भी बढ़ती है, जो आगे चलकर कंपनी की ग्रोथ में एक अहम रोल निभा सकती है।

यह कैपिटल की ओवरऑल कॉस्ट को कम करने में मदद कर सकता है, क्योंकि बैंक भारी इंटरेस्ट रेट वसूलते हैं।

डाइवर्सीफाई होने में और बढ़े हुए इक्विटी बेस में मदद करता है।

आईपीओ के नुकसान

कंपनी के बारे में कॉन्फिडेंशियल जानकारी का खुलासा करना जरूरी है।

कॉम्पटीटर्स आपकी कॉन्फिडेंशियल जानकारी का गलत तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं।

बढ़ा हुआ जोखिम शामिल है।

सही तरीके से काम चलाने के लिए मैनेजमेंट की ओर से अधिक ध्यान और कोशिशों की जरूरत पड़ती है।

डायरेक्ट लिस्टिंग किस तरह से इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग से अलग है?

फोकस कैपिटल रेज़ करने के लिए आईपीओ चुनने वाली कंपनियों का गोल एक्स्ट्रा फंड जुटाना होता है, लेकिन डायरेक्ट लिस्टिंग के मामले में ऐसा नहीं है। डीपीओ में, कंपनियां एक्स्ट्रा कैपिटल रेज़ करने पर फोकस नहीं करती हैं। उनका फोकस कैपिटल रेज़ के लिए मौजूदा शेयरहोल्डर्स की लिक्विडिटी और पब्लिक तक पहुंच बढ़ाना है।
कॉस्ट आईपीओ की तुलना में डायरेक्ट लिस्टिंग की लागत कम होती है क्योंकि डायरेक्ट पब्लिक ऑफरिंग प्रोसेस में कोई बिचौलिया शामिल नहीं होता है। डीपीओ में, स्टेकहोल्डर्स शेयरों को रजिस्टर करने और बेचने में मदद करने वाले अंडरराइटर्स को कोई फीस दिए बिना सीधे लोगों को शेयर बेच सकते हैं।
अस्थिरता आईपीओ और डीपीओ के बीच एक और बड़ा अंतर इसमें शामिल अस्थिरता है। ट्रेडिशनल आईपीओ में, अस्थिरता कम होती है क्योंकि लिस्टिंग से पहले शेयर की कीमतों पर बातचीत की जाती है। दूसरी ओर, क्योंकि कंपनियां पेशकश की कीमत तय करने के लिए फ्री हैं, इसलिए अस्थिरता अधिक है।
सूटेबिलिटी क्योंकि डायरेक्ट लिस्टिंग में कोई अंडरराइटर शामिल नहीं होता है, इसलिए यह सुनिश्चित करना होगा कि कंपनी की अपने कस्टमर्स के बीच अच्छी रेपोटेशन हो। इन्वेस्टर्स केवल तभी अपने शेयर खरीदने में इंटरेस्ट दिखाएंगे अगर उनके पास समझने में आसान बिजनेस मॉडल होगा।

यदि इन्वेस्टर्स को पता है कि बिजनेस/कंपनी कैसे पैसा कमाती है, तो उनके लिए इन्वेस्टमेंट करने के लिए आश्वस्त होना आसान हो जाता है। अगर कंपनियों की मार्केट में अच्छी कस्टरम रेपोटेशन नहीं है, तो डीपीओ उनके लिए सही नहीं हो है।

लॉक-अप पीरियड लॉक-अप पीरियड वह होता है जब मौजूदा शेयरहोल्डर्स को मार्केट में अपने शेयर बेचने की इजाजत नहीं होती है। ट्रेडिशनल आईपीओ में, कंपनियां एक निश्चित लॉक-अप पीरियड का पालन करती हैं, जिसमें मौजूदा शेयरहोल्डर्स मार्केट में शेयर की कीमतों में ओवर सप्लाई और कमी को रोकने के लिए अपने शेयर नहीं बेच सकते हैं। डीपीओ में कोई लॉक-अप पीरियड नहीं है क्योंकि केवल मौजूदा शेयरहोल्डर्स ही ओपन मार्केट में अपने शेयर बेचते हैं।
प्रोसेस की टाइमलाइन आईपीओ आमतौर पर एक समय लेने वाला प्रोसेस है। कंपनियों को पब्लिक होने का फैसला लेने से पहले एक साल या उससे अधिक समय तक शुरुआत करनी पड़ सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें एक मैनेजमेंट टीम और डायरेक्टर्स का सिलेक्श, सिस्टम तैयार करना, प्रेजेंटेशन बनाना, अंडरराइटिंग प्रोसेस जैसी तमाम चीजें शामिल हैं। हालांकि, दूसरी ओर, कंपनियों की ओर से कोई दायित्व नहीं है; इसलिए, इसमें कम समय लगता है।

FAQs

क्या डायरेक्ट लिस्टिंग को आईपीओ से बेहतर माना जाता है? फैसला लेना कंपनी के गोल पर निर्भर करता है। लेकिन आम तौर पर, डीपीओ को आईपीओ से बेहतर माना जा सकता है क्योंकि इसमें ज्यादा कॉस्ट नहीं लगती है, और आईपीओ के प्रोसेस के लिए करोड़ों रुपये की जरूरत हो सकती है।
क्या कोई कंपनी बिना आईपीओ के लिस्टेड हो सकती है? हां। डायरेक्ट लिस्टिंग कंपनियों के लिए लिस्टेड होने और लोगों को अपने शेयर बेचने का दूसरा तरीका है।
क्या भारत में डायरेक्ट लिस्टिंग आम है? हां। भारत में एक विधेयक है जिसे कंपनी (संशोधन) विधेयक, 2020 के नाम से जाना जाता है, जो इसकी अनुमति देता है।
डीपीओ में कितना समय लगता है? डीपीओ के प्रोसेस में न केवल कम फंड की जरूरत होती है बल्कि इसे आईपीओ की तुलना में तेजी से पूरा भी किया जा सकता है। इस प्रोसेस को पूरा होने में एक महीने का समय लग सकता है।

लेखकों के बारे में

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Upstox Hindi News Desk पत्रकारों की एक टीम है जो शेयर बाजारों, अर्थव्यवस्था, वस्तुओं, नवीनतम व्यावसायिक रुझानों और व्यक्तिगत वित्त को उत्साहपूर्वक कवर करती है।

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