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4 min read | अपडेटेड December 27, 2024, 18:24 IST
सारांश
Household Consumption Expenditure Survey 2023-24 के डेटा में गांवों और शहरों के बीच उपभोग का अंतर कम होता दिखा है। हालांकि, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में अभी और प्रयास करने की जरूरत नजर आई है।
खाने-पीने की चीजों पर नहीं हो रहा सबसे ज्यादा खर्च
भारत के गांव तेजी से शहरों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। इस बात का सबूत मिलता है घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों में। केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से कराए गए इस सर्वे के मुताबिक मासिक खर्च के मामले में शहरों और गांवों के बीच का अंतर अब कम होता जा रहा है। सबसे ज्यादा खर्च भी खाद्य पदार्थों पर नहीं आने-जाने के लिए वाहनों के इस्तेमाल, कपड़े-जूतों जैसी चीजों पर हो रहा है।
केंद्रीय मंत्रालय ने कोविड-19 के बाद खर्चों के ट्रेंड को समझने के लिए दो सर्वे कराए थे। इनमें से एक की रिपोर्ट जून 2024 में रिलीज कर दी गई थी। दूसरा सर्वे अगस्त 2023-2024 के बीच पूरे देश में किया गया और उसके आंकड़े अब जारी किए गए हैं। इसके लिए मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (Monthly Per Capita Consumption Expenditure, MPCE) का इस्तेमाल किया गया है।
सर्वे में कुल 2,61,953 घरों को शामिल किया गया था जिनमें से 1,54,35 ग्रामीण इलाकों और 1,07,596 शहरी इलाकों के थे।
अलग-अलग सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के जरिए घरों को मुफ्त में मिलने वाली चीजों का मूल्य हटा दें, तो 2023-24 के बीच ग्रामीण इलाकों में औसतन MPCE ₹4,122 का रहा जबकि शहरों के लिए यह ₹6,996 रहा।
सबसे उम्मीदजनक संकेत शहरों और गांवों के बीच के अंतर को लेकर मिले। सर्वे के मुताबिक साल 2011-12 में जो अंतर 84% था, वह 2022-23 में 71% और 2023-24 में 70% पर आ गया। इससे गांवों में बढ़ते उपभोग की ओर इशारा मिलता है। यही नहीं, दोनों ही इलाकों के अंदर उपभोग की असामनता भी कम हुई है।
इस सर्वे में भी साल 2022-23 की तरह ही पाया गया है कि खाने-पीने की चीजों से ज्यादा खर्चा, गैर-खाद्य पदार्थों पर हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में यह 53% है जबकि शहरों में 60%। इसमें सबसे ज्यादा खर्च आने-जाने के लिए गाड़ियों के इस्तेमाल, कपड़ों, चादर-बिस्तर और कपड़ों, मनोरंजन, और टिकाऊ वस्तुओं पर खर्च हो रहा है।
साल 2022-23 ओर 2023-24 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि गैर-खाद्य वस्तुओं जैसे कन्वेयंस और कपड़े-जूतों का योगदान ग्रामीण इलाकों के खर्च में शहरी इलाकों की तुलना में ज्यादा बढ़ा है। वहीं, शिक्षा पर खर्च ग्रामीण इलाकों में घटा है और शहरी इलाकों में बढ़ा है। स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो इस पर खर्च दोनों ही जगह घटा है लेकिन यह गिरावट गांवों में ज्यादा रही है।
इनके अलावा किराये का खर्च भी शहरी इलाकों में 7% का बड़ा हिस्सा रखता है। वहीं, खाने-पीने की चीजों में प्रोसेस्ड आइटम और बेवरेज पर दूध और इसके उत्पादों और सब्जियों से ज्यादा खर्च हुआ है।
राज्यों के बीच सबसे ज्यादा MPCE सिक्कम (ग्रामीण– ₹9,377, शहरी – ₹13,927) का रहा जबकि सबसे कम छत्तीसगढ़ (ग्रामीण– ₹2,739, शहरी– ₹4,927) का रहा। इससे देश के अलग-अलग राज्यों के बीच क्षेत्रीय असामनता का पता चलता है।
केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे ज्यादा MPCE चंडीगढ़ (ग्रामीण– ₹8,857, शहरी– ₹13,425) जबकि ग्रामीण इलाकों के मामले में सबसे कम दादरा और नागर हवेली और दमन और दीयू (₹ 4,311) और शहरी इलाकों में सबसे कम जम्मू-कश्मीर (₹6,327) में रहा।
ग्रामीण और शहरी इलाकों में असामनता सबसे ज्यादा मेघालय में 104% रही जिसके बाद झारखंड में 83% और छत्तीसगढ़ में 80% पाई गई।
HCES के जरिए इकट्ठा की गई जानकारी आर्थिक स्तर का पता लगाने के काम आती है। इसके जरिए कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स कैलकुलेट करने के लिए चीजों और सेवाओं का बास्केट तैयार करने में भी मदद मिलती है।
इस सर्वे से गरीबी, असमानता और सामाजिक दूरियों के बारे में साफ तस्वीर पेश होती है। इसे सही तरीके से इस्तेमाल करके नीति-निर्माण करने पर बड़ी आबादी का आर्थिक और सामाजिक उत्थान करने की कोशिश की जाती है।
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