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  1. महीना 31 का हो या 28 का, सैलरी 30 दिन की ही क्यों? जानिए कंपनियों का यह सीक्रेट गणित

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महीना 31 का हो या 28 का, सैलरी 30 दिन की ही क्यों? जानिए कंपनियों का यह सीक्रेट गणित

Upstox

3 min read | अपडेटेड December 11, 2025, 15:23 IST

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सारांश

क्या आपने कभी सोचा है कि फरवरी में कम दिन काम करने पर भी पूरी सैलरी मिलती है, लेकिन 31 वाले महीनों में एक दिन एक्स्ट्रा काम करने का पैसा नहीं जुड़ता। इसके पीछे कंपनियों की एचआर पॉलिसी और सैलरी के स्ट्रक्चर का एक खास गणित काम करता है।

30 Days Salary Rule

सैलरी 30 दिन का मिलने के पीछे काम करता है सिंपल सा गणित | Image source: Shutterstock

हर महीने की पहली या आखिरी तारीख को जब फोन पर सैलरी क्रेडिट होने का मैसेज आता है तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। लेकिन कभी न कभी आपके दिमाग में यह सवाल जरूर आया होगा कि हम साल में सात महीने 31 दिन काम करते हैं, फिर भी सैलरी 30 दिन के हिसाब से ही क्यों आती है। वहीं फरवरी में सिर्फ 28 या 29 दिन होते हैं, फिर भी सैलरी पूरी मिलती है। आखिर यह गणित क्या है और कंपनियां ऐसा क्यों करती हैं, यह जानना हर कर्मचारी के लिए जरूरी है।

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सालाना पैकेज का होता है बंटवारा

सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि कॉरपोरेट जगत में सैलरी का स्ट्रक्चर कैसे काम करता है। जब भी आप किसी कंपनी में नौकरी शुरू करते हैं तो बात आपकी मंथली सैलरी पर नहीं, बल्कि सालाना सीटीसी यानी कॉस्ट टू कंपनी पर होती है। कंपनी आपको साल भर के लिए एक फिक्स रकम देने का वादा करती है। आसान हिसाब-किताब के लिए इस सालाना रकम को 12 महीनों में बराबर बांट दिया जाता है। यही वजह है कि महीना चाहे छोटा हो या बड़ा, आपके खाते में आने वाली रकम हर बार एक जैसी ही होती है। इसे एक स्टैंडर्ड प्रक्रिया माना जाता है ताकि हर महीने पे-रोल बनाने में उलझन न हो।

फरवरी का फायदा और 31 का नुकसान

अगर हम एक-एक दिन का हिसाब जोड़ने लगें तो शायद आपको लगेगा कि 31 दिन वाले महीनों में आपको नुकसान हो रहा है। लेकिन जरा फरवरी के बारे में सोचिए। फरवरी में 28 दिन होते हैं और लीप ईयर में 29 दिन। अगर कंपनियां दिनों के हिसाब से सैलरी देतीं, तो फरवरी में आपकी सैलरी काफी कम हो जाती और मार्च में बढ़ जाती। इससे आपके घर का बजट हर महीने बिगड़ सकता था। इसलिए, स्थिरता बनाए रखने के लिए 30 दिन का एक औसत मानक मान लिया गया है। इस सिस्टम में न तो कंपनी का नुकसान होता है और न ही कर्मचारी का, क्योंकि साल के अंत में हिसाब बराबर हो जाता है।

26 दिन वाले नियम को भी जानिए

सैलरी के इस गणित में एक पेंच और है जिसे जानना बहुत दिलचस्प है। कई बार आपने सुना होगा कि सैलरी 26 दिन के हिसाब से बनती है। यह नियम मुख्य रूप से उन जगहों पर लागू होता है जहां दिहाड़ी या डेली वेजेस पर काम होता है। फैक्ट्री एक्ट और ग्रेच्युटी के नियमों के मुताबिक महीने में चार रविवार की छुट्टी मानी जाती है। इसलिए 30 में से 4 दिन घटाकर 26 दिन को वर्किंग डेज माना जाता है। जब आप अपनी कंपनी से पांच साल बाद ग्रेच्युटी लेते हैं, तो वहां आपकी सैलरी को 30 से नहीं, बल्कि 26 से भाग देकर एक दिन की कमाई निकाली जाती है। इससे कर्मचारी को ग्रेच्युटी की रकम थोड़ी ज्यादा मिलती है।

ज्वाइनिंग और छोड़ने के वक्त का हिसाब

यह 30 दिन वाला फिक्स नियम तब थोड़ा बदल जाता है जब आप महीने के बीच में नौकरी ज्वाइन करते हैं या छोड़ते हैं। मान लीजिए आपने किसी महीने की 15 तारीख को ज्वाइन किया। ऐसे में एचआर विभाग उस महीने के कुल दिनों (28, 30 या 31) के आधार पर आपकी एक दिन की सैलरी निकालता है और फिर उसे आपके काम किए गए दिनों से गुणा करता है। कुछ कंपनियां यहां भी स्टैंडर्ड 30 दिन का ही फॉर्मूला अपनाती हैं ताकि प्रोसेस आसान रहे। कुल मिलाकर यह पूरी व्यवस्था इसलिए बनाई गई है ताकि आपको हर महीने एक निश्चित रकम मिलती रहे और आप अपनी ईएमआई या खर्चों को आसानी से मैनेज कर सकें।

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लेखकों के बारे में

Upstox
Upstox Hindi News Desk पत्रकारों की एक टीम है जो शेयर बाजारों, अर्थव्यवस्था, वस्तुओं, नवीनतम व्यावसायिक रुझानों और व्यक्तिगत वित्त को उत्साहपूर्वक कवर करती है।

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