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4 min read | अपडेटेड December 15, 2025, 15:03 IST
सारांश
आज भले ही पाकिस्तान आर्थिक तंगी से जूझ रहा है, लेकिन इतिहास में एक वक्त ऐसा भी था जब पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने भारत का बजट पेश किया था। 1946 की अंतरिम सरकार में वे वित्त मंत्री थे। उनके बजट को 'पुअर मैन्स बजट' कहा गया, जिसने अमीरों की नींद उड़ा दी थी।

बजट देश की दिशा तय करता है।
आज के दौर में हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वहां हालात ऐसे हैं कि सरकार को विश्व बैंक से कर्ज लेना पड़ रहा है, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटें तो एक बेहद दिलचस्प और हैरान करने वाला वाकया सामने आता है। आज से करीब सात दशक पहले, उसी पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बनने वाले शख्स के हाथ में कभी पूरे हिंदुस्तान की तिजोरी की चाबी थी। जी हां, हम बात कर रहे हैं लियाकत अली खान की, जिन्होंने आजादी से ठीक पहले भारत का आम बजट पेश किया था। उस वक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार में वे देश के वित्त मंत्री थे।
यह किस्सा 1946 का है। उस समय देश आजादी की दहलीज पर खड़ा था और एक अंतरिम सरकार का गठन किया गया था। लियाकत अली खान ने 2 फरवरी को तत्कालीन लेजिस्लेटिव असेंबली (जो बाद में संसद भवन बना) में बजट पेश किया था। उनके इस बजट को इतिहास में 'पुअर मैन्स बजट' यानी गरीबों का बजट का दर्जा दिया गया। उन्होंने अपने बजट प्रस्तावों को समाजवादी बताया था, लेकिन इसके पीछे की राजनीति कुछ और ही मानी जाती है। उन्होंने बजट में टैक्स के नियम इतने सख्त कर दिए थे कि उस समय के बड़े-बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों के पसीने छूट गए थे। यह वह वर्ग था जो कांग्रेस का समर्थक माना जाता था, इसलिए आरोप लगे कि लियाकत अली ने जानबूझकर उन्हें निशाना बनाया है।
लियाकत अली खान मुस्लिम लीग के शीर्ष नेता थे और मोहम्मद अली जिन्ना के बेहद करीबी थे। जब अंतरिम सरकार बनी, तो मुस्लिम लीग ने अपने नुमाइंदे के तौर पर उन्हें भेजा और उन्हें वित्त मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण विभाग मिला। कहा जाता है कि वित्त मंत्री के तौर पर वे काफी सख्त थे। सरकार के कामकाज में उनकी सख्ती का आलम यह था कि दूसरे मंत्रियों, यहां तक कि पंडित नेहरू और सरदार पटेल को भी अपने विभागों के लिए पैसा पास कराने में नाको चने चबाने पड़ते थे।
सरदार पटेल ने तो एक बार यहां तक कहा था कि लियाकत अली खान की अनुमति के बिना सरकार में एक चपरासी की नियुक्ति भी नहीं हो सकती। उन पर आरोप लगते थे कि वे हिंदू मंत्रियों या कांग्रेस के मंत्रियों की फाइलों और प्रस्तावों को हरी झंडी दिखाने में जानबूझकर देरी करते थे और खासा वक्त लेते थे। यह वह दौर था जब सरकार के भीतर ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच शीत युद्ध चल रहा था।
लियाकत अली खान का भारत और खासकर उत्तर प्रदेश से गहरा नाता था। पाकिस्तान जाने से पहले वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) की राजनीति में सक्रिय थे। वे मेरठ और मुजफ्फरनगर से यूपी असेंबली के लिए चुनाव लड़ते थे। हालांकि, वे कट्टरपंथी छवि वाले नेता नहीं माने जाते थे। उनके बचाव में तर्क दिया जाता है कि उनकी पत्नी गुल-ए-राना मूल रूप से एक हिंदू परिवार से थीं, हालांकि उनका परिवार बहुत पहले ईसाई धर्म अपना चुका था। इसके बावजूद, लियाकत अली खान ने पाकिस्तान की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।
देश के बंटवारे के बाद लियाकत अली खान पाकिस्तान चले गए और वहां के पहले प्रधानमंत्री बने। जिन्ना की मृत्यु के बाद वे पाकिस्तान के सबसे बड़े और निर्विवाद नेता बनकर उभरे। हालांकि, उनका अंत बेहद दुखद रहा। साल 1951 में रावलपिंडी के एक मैदान में सभा को संबोधित करने के दौरान गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। इतिहास का एक और संयोग देखिए कि जिस कंपनी बाग मैदान में लियाकत अली खान की हत्या हुई, दशकों बाद उसी जगह पर पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की भी हत्या हुई।
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