बहुमूल्य पत्थर, विशाल द्वार... इमारतों पर लिखी इकॉनमी की कहानी

19 अप्रैल 2025

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भारत में आज भी ऐसी हजारों इमारतें हैं जो हमें इतिहास में वापस लेकर जाती हैं और कहानी कहती हैं अपने दौर की, उन्हें बनाने वाले राजाओं की।

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यूं तो आमतौर पर किलों से लेकर मंदिरों तक के ढांचे शाही रुतबा दिखाने के लिए बनाए जाते थे, इनसे उस वक्त की अर्थव्यवस्था का पता भी चलता है।

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कहां से बहुमूल्य पत्थरों को लाया जाता था, किन क्षेत्रों में उत्पादन पर जोर था और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए शासक क्या करते थे, इन सवालों के जवाब से इकॉनमी की झलक मिलती है।

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जावा, सुमात्रा जैसे क्षेत्रों पर राज करने वाले शैलेंद्र राजवंश को नालंदा में मठ बनाने की इजाजत देने के पीछे एक बड़ा कारण पाल राजवंश का उसके साथ होने वाला व्यापार था। 

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ये व्यापार संबंधों के असर का ही संकेत है जो हमें जावा में बौद्ध बोरोबुडूर मंदिर और कंबोडिया में हिंदू धर्म से प्रेरित अंगकोरवाट मंदिर देखने को मिलता है।

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तंजौर, कांचीपुरम जैसे चोला राजवंश के मंदिरों में विशाल द्वार (गोपुरम) और बारीकी से बनीं आकृतियों में लगे पत्थर राज्य में मौजूद संसाधनों का संकेत हैं। 

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साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि ना सिर्फ राजा इनके निर्माण पर खूब खर्च करते थे बल्कि ये बड़े-बड़े मंदिर परिसर व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र भी बन गए थे।

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हालांकि, कई ऐसे राजा और राज्य भी हुए जिन्होंने धार्मिक स्थलों के निर्माण के लिए इतने दान दिए कि राज्य की अर्थव्यवस्था ही चरमरा गई और वे टूटते चले गए।

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गुप्ता साम्राज्य से लेकर विजयनगर और दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक तक शासकों ने कई नहरों, झीलों, तालाबों का निर्माण कराया था जिससे राज्यों के कृषि पर फोकस का पता चलता है।

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कृषि उत्पादन के स्तर और वितरण के लिए उन्हें स्टोर करने की अहमियत सिंधु घाटी सभ्यता में हड़प्पा और राखीगढ़ी जैसी जगहों पर ग्रैनरी या अन्नागार की मौजूदगी से भी दिखती है।

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इसी तरह 14वीं सदी के ट्रैवलर इब्न बतूता दिल्ली में दाखिल होने को बने 28 दरवाजों में से एक मंडवी दरवाजे के अंदर अन्न के बाजार होने की बात कहते है।

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अलाउद्दीन खिलजी ने अन्न, कपड़ों के लिए मंडियां बनवाई थीं जिनके जरिए इनकी कीमतें कंट्रोल की जाती थीं। इनपर नजर रखने के लिए शाहना-ए-मंडी नाम का अधिकारी भी होता था।

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17वीं शताब्दी में आए फ्रांस के ट्रैवलर फ्रांसुआ बर्निये मुगल शासन में कारखानों के बारे में बताते हैं जहां सोने से लेकर सिल्क तक के उत्पादों के निर्माण का पता चलता है।

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चूड़ियों, बहुमूल्य धातुओं, खिलौनों के कारखानों के निशान हमें सिंधु घाटी सभ्यता के कालीबंगन और चान्हुदारो जैसे इलाकों पर मिले हैं जो बाजार में इनकी मांग को दिखाता है।

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सिंधु घाटी सभ्यता में जहाज के जरिए दूसरी जगहों से होने वाले लापिस लाजुली, तांबे जैसी चीजों के व्यापार का पता लोथल में मिले बंदरगाह से चलता है।

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बंदरगाहों पर विजयनगर साम्राज्य का भी जोर था। 15वीं शताब्दी में यहां आए अब्दुर रज्जाक ऐसी किलेबंदी का जिक्र करते हैं जिसके अंदर खेतों तक को सुरक्षा दी गई थी।

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इसी मध्यकाल में दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के बनाए ढांचों में भव्यता की कमी दिखती है क्योंकि शाही खजाना महंगे पत्थरों और कारीगरों का खर्च नहीं उठा सकता था।

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