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भारत का लक्ष्य है साल 2047 तक अपनी न्यूक्लियर पावर क्षमता को 100 GW तक पहुंचाने का ताकि जीवाश्म ईंधनों के ऊपर निर्भरता को कम किया जा सके।
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हमारे जंगी जहाजों के बेड़े में शामिल INS अरिहंत क्लास की पनडुब्बियां भी परमाणु ऊर्जा पर आधारित हैं जो इन्हें और तेज बनाता है।
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मौजूदा टेक्नॉलजी न्यूक्लियर फिशन रिऐक्शन पर आधारित है जिसमें एक न्यूक्लियस के छोटे-छोटे हिस्सों में टूटने पर जो एनर्जी रिलीज होती है, उससे बिजली पैदा होती है।
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ये न्यूक्लियस जिस ईंधन का होता है उसमें सबसे अहम है यूरेनियम और थोरियम। भारत में यूरेनियम को ज्यादातर इंपोर्ट किया जाता है जबकि थोरियम पर्याप्त मात्रा में मौजूद है।
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हमारे देश की खदानों से 78 हजार टन यूरेनियम मेटल और 5.18 लाख टन थोरियम का एक्सट्रैक्शन हो सकता है।
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भारत की सबसे पुरानी जाडूगोडा खदान (झारखंड) में यूरेनियम के ताजे डिपॉजिट की खोज के साथ आने वाले 50 साल तक के लिए इस ईंधन की उपलब्धता बढ़ गई है।
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सिंघभूम थ्रस्ट बेल्ट में आने वाले जाडूगोडा में यूरेनियम की खोज 1951 में हुई थी। इसका खनन और प्रोसेसिंग 1968 में शुरू हुई।
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इसके बाद इस बेल्ट के भाटिन, मोहुलडीह, बागजाता, नीमडीह, नानडुप जैसे इलाकों से भी अलग-अलग ग्रेड के डिपॉजिट पाए गए।
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आंध्र प्रदेश के कुडप्पा बेसिन में लंबापुर-पेड्डागट्टू, कुप्पुनुरी से लेकर मेघालय के महादेक बेसिन और राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में भी इसकी खोज हुई।
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इतने रिजर्व होने के बावजूद हम इसके आयात पर निर्भर हैं क्योंकि इसकी क्वॉलिटी बहुत अच्छी नहीं है और इसका एनरिचमेंट करने में टेक्नॉलजी से लेकर अंतरराष्ट्रीय मानकों तक कई बंदिशें हैं।
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ऐसे में अहम होता है थोरियम जो डॉ. होमी जहांगीर भाभा के बनाए न्यूक्लियर प्रोग्राम के तीसरे चरण में आता है। थोरियम को यूरेनियम में बदलकर ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
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भारत के पास दुनियाभर के थोरियम का सबसे ज्यादा 21% रिजर्व मौजूद है और इसके इस्तेमाल से ऊर्जा उत्पादन विकसित करने के लिए भारत में प्रॉजेक्ट ‘भवानी’ चल रहा है।
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केरल और ओडिशा के तटों पर मोनाजाइट रेत में देश के थोरियम का 70% हिस्सा है।
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थोरियम की खास बात ये है कि इससे ऊर्जा भी ज्यादा निकलती है और कचरे का खतरा भी कम होता है।
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